• 14 Sep, 2025

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872: एक विस्तृत विश्लेषण
 
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872, ब्रिटिश शसको द्वारा प्रख्यापित इंग्लिश कॉमन लॉ पर आधारित भारत का प्रमुख संविदा कानून है,और आज भी अपनी महत्ता बनाए हुए है। इस अधिनियम का उद्देश्य विभिन्न प्रकार की संविदाओं के निर्माण, निष्पादन और प्रवर्तनीयता के सामान्य सिद्धांतों को निर्धारित करने और विशेष प्रकार की संविदाओं क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, जमानत और गिरवी, तथा अभिकरण (एजेंसी) के संबंध में नियम बनाता है।
यह अधिनियम 25 अप्रैल, 1872 को पारित हुआ था और 1 सितम्बर, 1872 से लागू हुआ। यह भारतीय विधिक प्रणाली में संविदाओं की संरचना और संचालन के लिए एक आधार प्रदान करता है। भारतीय संविदा अधिनियम की खामियाँ एवं सफलताएँ दोनों ही इसे समय-समय पर अद्यतित करने की आवश्यकता की पहचान कराती हैं।
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार, संविदा एक ऐसा करार है जिसे कानून द्वारा प्रवर्तित किया जा सकता है। यदि किसी करार को कानून द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है, तो वह संविदा नहीं मानी जाएगी। ‘करार’ का तात्पर्य एक प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति से है, जहाँ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को किसी कार्य के लिए प्रतिबद्ध करता है। यह प्रक्रिया व्यापारिक और कानूनी साक्षात्कार में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
संधि का निर्माण एक ‘पेशकश’ और उसकी ‘स्वीकृति’ के माध्यम से होता है। इसके तहत, एक पक्ष दूसरे पक्ष को एक निश्चित प्रस्ताव देने के बाद, दूसरे पक्ष द्वारा उसकी स्वीकृति की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया में यदि दोनों पक्ष अपनी सहमति दर्शाते हैं, तो वह एक वैध करार के रूप में माना जाएगा।
व्यापारिक सन्नियम में उन अधिनियमों को शामिल किया जाता है जो व्यावसायिक क्रियाओं के नियमन और नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं। इनमें व्यापारियों, बैंकर्स, और व्यवसायियों के सामान्य व्यवहार से संबंधित नियम शामिल होते हैं। भारतीय संविदा अधिनियम व्यावसायिक सन्नियम की एक महत्वपूर्ण श्रेणी है, जो व्यापारिक गतिविधियों को स्पष्ट दिशा प्रदान करता है। उदाहरण के तौर पर, यदि दो व्यवसाय एक अनुबंध करते हैं, तो उस अनुबंध के अंतर्गत आने वाली शर्तें और नियम भारतीय संविदा अधिनियम द्वारा निर्धारित किए जाएंगे।
भारतीय संविदा अधिनियम को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में धारा 1 से 75 तक के सामान्य सिद्धांत शामिल हैं, जो सभी प्रकार की संविदाओं पर लागू होते हैं, जबकि दूसरे भाग में धारा 76 से 266 तक विशिष्ट प्रकार की संविदाओं के लिए नियम शामिल हैं। विशिष्ट प्रकार की संविदाओं में वस्तु विक्रय, क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, निक्षेप, गिरवी, एजेंसी, और साझेदारी शामिल हैं।
1930 में वस्तु विक्रय से संबंधित धाराओं को निरस्त करके पृथक वस्तु विक्रय अधिनियम बनाया गया, और इसी प्रकार 1932 में साझेदारी संबंधी धाराओं को भी पृथक साझेदारी अधिनियम में स्थानांतरित किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि समय के साथ संविदा कानून में आवश्यकतानुसार बदलाव किए जाते रहे हैं।
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872, न केवल एक कानूनी दस्तावेज है, बल्कि यह भारतीय वाणिज्यिक और सामाजिक जीवन के एक अभिन्न हिस्से के रूप में कार्य करता है। इसकी संरचना और विकास ने इसे आधुनिक बाजार की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाए रखा है। इसकी समझ और अनुप्रयोग व्यवसायियों, वकीलों, और आम नागरिकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस अधिनियम के तहत अनुबंधित प्रक्रिया, न केवल अनुचित व्यवहार को रोकने में सहायक है, बल्कि यह व्यापारिक विश्वसनीयता और विश्वास को बनाए रखने में भी सहायक होता है।
भारतीय संविदा अधिनियम एक ऐतिहासिक दस्तावेज आज भी भारतीय समाज में संविदा संबंधी विवादों को निपटाने मे सक्षम है ।

Dr. Lokesh Shukla

Dr. Lokesh Shukla, Managing Director, International Media Advertisent Program Private Limited Ph. D.(CSJMU), Ph. D. (Tech.) Dr. A.P.J. Abdul Kalam Technical University, before 2015 known as the Uttar Pradesh Technical University, WORD BANK PROCUREMENT (NIFM) Post Graduate Diploma Sales and Marketing Management