प्रस्तुत विधेयक मामले में राज्यपाल के संवैधानिक विकल्प क्या हैं?
क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह को लेकर बाध्य हैं? राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेक का उपयोग न्यायोचित है?
क्या राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण पाबंदी है?
राज्यपाल के लिए समयसीमा निर्धारित की जा सकती है ?
क्या राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
क्या राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है।
क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने की आवश्यकता है?
क्या फैसले कानून बनने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं?
विधेयक के कानून बनने से पहले क्या न्यायिक निर्णय लिए जा सकते हैं?
क्या आदेशों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
क्या राज्य विधानमंडल द्वारा तैयार कानून राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू हो सकते हैं?
क्या संविधान की व्याख्या के लिए न्यूनतम पांच न्यायाधीशों की पीठ नहीं होनी चाहिए
क्या सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां निर्देश जारी करने तक विस्तारित है?
क्या सुप्रीम कोर्ट किसी अन्य क्षेत्राधिकार पर रोक लगा सकता है?
- 07 Jun, 2025

अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट की राय लेने की आवश्यकता
अनुच्छेद 143 ए महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो राष्ट्रपति को परामर्शदात्री अधिकार प्रदान करता है.
ऐतिहासिक मामलों जैसे बेरूबारी विवाद और बाबरी मस्जिद विवाद में इसका उपयोग किया गया
कानपुर 16 मई 2025
नई दिल्ली: 15 मई 2025
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर फैसला लेने के संबंध में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा निर्धारित करने से संबंधित आठ अप्रैल के फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे हैं। राष्ट्रपति मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट की राय लेने की आवश्यकता है।
राष्ट्रपति को जब यह लगता है कि कोई सवाल सार्वजनिक महत्व से जुड़ा है तो वह प्रश्न को विचारार्थ सुप्रीम कोर्ट को भेज सकता है और न्यायालय सुनवाई के पश्चात अपनी राय राष्ट्रपति को सूचित कर सकता है। गौर हो कि सुप्रीम कोर्ट के आठ अप्रैल के फैसले में विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर फैसला करने को लेकर सभी राज्यपालों के लिए समयसीमा निर्धारित की गई है और कहा गया कि मंत्रिपरिषद की सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा। कोर्ट ने कहा था कि यदि राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति मंजूरी नहीं देता है तो राज्य सरकारें सीधे सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकती हैं।
अनुच्छेद 143, जो राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच संवाद का है संवैधानिक माध्यम? भारतीय संविधान का अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह किसी महत्वपूर्ण विधिक या संवैधानिक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से परामर्श ले सकते हैं. यह परामर्श गैर-बाध्यकारी होता है, यानी सरकार चाहे तो उसे माने या न माने. इस अनुच्छेद का उद्देश्य कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संवैधानिक संतुलन बनाए रखना है. ऐतिहासिक मामलों जैसे बेरूबारी विवाद और बाबरी मस्जिद विवाद में इसका उपयोग किया गया है.
क्या है अनुच्छेद 143?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 143 एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो राष्ट्रपति को परामर्शदात्री अधिकार प्रदान करता है. यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को न्यायिक परामर्श प्राप्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने की अनुमति देता है. अनुच्छेद 143(1): राष्ट्रपति द्वारा परामर्श यदि राष्ट्रपति को यह लगता है कि कोई महत्वपूर्ण प्रश्न या जनहित से जुड़ा मामला है, तो वह इस पर सर्वोच्च न्यायालय से राय मांग सकता है. यह राय न्यायिक मामले या फिर संवैधानिक महत्व के विषय पर हो सकती है. सुप्रीम कोर्ट इस सलाह को देता है, लेकिन यह राय बाध्यकारी नहीं होती. यानी सरकार चाहे तो इसे माने या ना माने. उदाहरण दिल्ली कानून अधिनियम मामला (1951): सुप्रीम कोर्ट से दिल्ली के प्रशासनिक कानूनों पर राय मांगी गई थी. केरल शिक्षा विधेयक (1957): राष्ट्रपति ने इस विधेयक की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट से परामर्श मांगा. अयोध्या मामला (1994): राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में भूमि के ऐतिहासिक उपयोग पर राय मांगी गई थी. ये भी पढ़ें :सिंधु जल संधि से लेकर भारत-अमेरिका व्यापार समझौते तक, विदेश मंत्री जयशंकर ने हर सवाल का दिया जवाब; पढ़ें बड़ी बातें प्रक्रिया राष्ट्रपति प्रश्न को औपचारिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भेजते हैं. सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करता है, जिसमें पक्षकारों (यदि कोई हों) को सुनने का अवसर मिल सकता है. कोर्ट अपनी राय राष्ट्रपति को भेजता है. महत्व यह प्रावधान सरकार को जटिल संवैधानिक या कानूनी मामलों में स्पष्टता प्राप्त करने में मदद करता है, खासकर जब कोई विवाद अभी कोर्ट में लंबित नहीं है. ये भी पढ़ें :"मैंने नहीं, लेकिन शायद मेरी वजह से हुआ भारत-पाकिस्तान सीजफायर" ट्रंप का यू-टर्न, बोले- दोनों 1000 साल से लड़ते आ रहे हैं
अनुच्छेद 143(2): अंतरराष्ट्रीय संधियों या समझौतों पर परामर्श राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से किसी ऐसी संधि, समझौते, या अन्य दस्तावेज पर राय मांग सकते हैं, जो संविधान के लागू होने से पहले (26 जनवरी 1950 से पहले) अस्तित्व में थे और जिनका प्रभाव अभी भी है. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ऐसी संधियां या समझौते संविधान के अनुरूप हैं या नहीं. इस खंड के तहत सुप्रीम कोर्ट को राय देना अनिवार्य नहीं है. कोर्ट इसे अस्वीकार भी कर सकता है, यदि मामला बहुत अस्पष्ट या अनुचित हो. महत्वपूर्ण उदाहरण: केशवानंद भारती केस के बाद (1973): जब संसद की संशोधन शक्ति पर सवाल उठे, तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से राय नहीं मांगी, लेकिन यह केस Article 143 से जुड़ी चर्चाओं में रहा. राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामला (1993): केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से यह सवाल सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि क्या विवादित स्थल पर कोई गैर-धार्मिक ढांचा था? सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल पर राय देने से इनकार किया क्योंकि यह ऐतिहासिक तथ्यों की जांच का मामला था, न कि विधिक व्याख्या का. बेरूबारी यूनियन केस (1960): भारत और पाकिस्तान के बीच भू-भाग के हस्तांतरण पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय दी कि संविधान संशोधन के बिना ऐसा संभव नहीं.
यह अनुच्छेद कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संवैधानिक संवाद की व्यवस्था करता है. सरकार को संवैधानिक स्पष्टता प्राप्त करने में सहायता मिलती है. यह लोकतंत्र में संवैधानिक संतुलन बनाए रखने का साधन है. महत्वपूर्ण बिंदु गैर-बाध्यकारी प्रकृति: अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय केवल सलाहकारी होती है, न कि कानूनी रूप से लागू करने योग्य. हालांकि, इसकी नैतिक और कानूनी प्रामाणिकता बहुत अधिक होती है. सुप्रीम कोर्ट का विवेक: कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वह किसी प्रश्न पर राय देने से मना कर दे, यदि वह इसे अनुचित या बहुत सामान्य समझता है. उदाहरण: अयोध्या मामले (1994) में कोर्ट ने कुछ सवालों पर राय देने से इनकार कर दिया था. उपयोग की सीमाएं: यह अनुच्छेद केवल तभी लागू होता है, जब कोई वास्तविक विवाद कोर्ट में लंबित न हो, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट सामान्य रूप से लंबित मामलों में परामर्श देने से बचता है. सार्वजनिक महत्व: प्रश्न का सार्वजनिक महत्व होना चाहिए, जैसे- संवैधानिक व्याख्या, राष्ट्रीय नीति या अंतरराष्ट्रीय दायित्व से संबंधित मुद्दे. उदाहरण और ऐतिहासिक उपयोग कावेरी जल विवाद (1990): राष्ट्रपति ने कावेरी नदी के जल बंटवारे पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी. 2G स्पेक्ट्रम मामला (2012): प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन पर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी थी. गुजरात गैस अधिनियम (2001): इस कानून की संवैधानिकता पर परामर्श मांगा गया था. सीमाएं और आलोचनाएं दुरुपयोग का खतरा: कुछ आलोचकों का मानना है कि सरकार इस प्रावधान का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए या विवादास्पद मुद्दों को टालने के लिए कर सकती है. कोर्ट का बोझ: सुप्रीम कोर्ट पहले से ही कार्यभार से दबा हुआ है, और परामर्शी मामलों से उस पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है. अस्पष्टता: कुछ मामलों में, कोर्ट ने अस्पष्ट या बहुत व्यापक सवालों पर राय देने से इनकार किया है, जिससे इस प्रावधान की उपयोगिता पर सवाल उठे हैं. अनुच्छेद 143: संविधान का अनूठा प्रावधान अनुच्छेद 143 संविधान का एक अनूठा प्रावधान है, जो कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सहयोग को बढ़ावा देता है. यह सरकार को जटिल कानूनी और संवैधानिक मुद्दों पर स्पष्टता प्राप्त करने का अवसर देता है, लेकिन इसकी गैर-बाध्यकारी प्रकृति और सीमित उपयोग इसे एक विशेष परिस्थिति वाला उपकरण बनाते हैं. यह प्रावधान संवैधानिक शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, बशर्ते इसका उपयोग विवेकपूर्ण और जिम्मेदारीपूर्वक किया जाए.
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